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Written By रवींद्र व्यास

डाली : विद्रोही तेवर के शिल्पी

डाली : विद्रोही तेवर के शिल्पी -
- विकास भट्‍टाचार्य

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मैं कभी भी स्पेन नहीं गया, डाली को मैंने कभी रूबरू नहीं देखा, फिर भी डाली ने मुझे विद्यार्थी जीवन से ही प्रभावित किया था। मेरी जीवनधारा कभी भी डाली की जैसी नहीं थी, कारण कि मेरा जीवन, मेरा समाज सभी कुछ एकदम भिन्न थे, लेकिन जिस चित्र-दर्शन का मैं आजीवन पालन करता आया वह मेरी नजर में डाली की तरह ही अभिन्न है।

स्पेन का राष्ट्रीय खेल बुल फाइटिंग है। एक जंतु को दौड़ा-दौड़ाकर हजारों लोगों के मनोरंजन के लिए वे लोग मारते हैं जिस देश के लोगों का मनोरंजन इतना नृशंस होता है, उनके साथ ही मेरी जीवनधारा का कोई मेल संभव ही नहीं। रक्तपात देखकर कम-से-कम मुझे तो कभी भी आनंद की अनुभूति नहीं हुई।

जितना मुझे मालूम है कि सर्रियलिज्म का उद्‍भव पेरिस या उसके आसपास हुआ था जो कि केवल चित्रकला तक ही सीमित नहीं था, बल्कि कहना चाहिए कि तमाम कला-माध्यमों में वह अभिव्यक्त हुआ था। तमाम सर्रियलिस्ट लेखक, कवि, कलाकारों ने उस समय इस आंदोलन को चलाया था। कवि ऐपोलोनियर, नाटककार आयोनेस्को, ब्रेष्ट तथा सर्वोपरि डाली के दोस्त फिल्मकार लुई बुन्वेल के बारे में कहना चाहिए। ये लोग एकसाथ चर्चाएँ किया करते, घूमा-फिरा करते, कहा जा सकता है कि इन लोगों ने एक नए शिल्पदर्शन को जन्म दिया था।
  स्पेन का राष्ट्रीय खेल बुल फाइटिंग है। एक जंतु को दौड़ा-दौड़ाकर हजारों लोगों के मनोरंजन के लिए वे लोग मारते हैं जिस देश के लोगों का मनोरंजन इतना नृशंस होता है, उनके साथ ही मेरी जीवनधारा का कोई मेल संभव ही नहीं।      


मॉडर्न रूस के विद्रोही फिल्मकार तारकोवस्की भी विशेष रूप से स्मरण योग्य हैं। हम लोगों को इन लोगों से अनोखी शिल्प-रचनाएँ मिली हैं। वह समय जबर्दस्त तोड़फोड़ में से गुजर रहा था। पश्चिम के कला-जगत में एब्स्ट्रक्ट आर्ट के नाम पर तमाम अनाचार चल रहा था, जिसके बुरे परिणाम हमें आज भी मिल रहे हैं। भारत के सर्रियलिस्ट शिल्प के बारे में कहना हो तो मुझे रामकिंकर, हेमंत मिश्र और गगनेंद्रनाथ की याद आती है। गगनेंद्रनाथ के चित्रों में स्थापत्य शिल्प के साथ ‍सर्रियलिज्म का समावेश था और चित्रों का रंग भी सफेद और काले पर आधारित था।

पचास या साठ के दशक में जब मैंने चित्र बनाने की शुरुआत की तब जिन चित्रों की प्रतिलिपि देखने का मौका मुझे मिलता था, वे मूलत: 'भारतवर्ष' तथा 'मॉडर्न रिव्यू' पत्रिका में छपे होते थे। तब भारतीय चित्रकला के रूप में टैगोर हाउस की शिल्पचर्चा की ही प्रधानता थी। व्यक्तिगत रूप से किसी ने खास आकर्षित नहीं किया था, रवींद्रनाथ और गगनेंद्रनाथ के बाद। सिर्फ थोड़े समय के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन के बाद थोड़ा-सा सोमनाथ होर, जैनल आबिदीन में और सबसे ज्यादा बंगला गणनाट्‍य आंदोलन से मिला था।

इसी वजह से चित्रचर्चा के शुरू में ही मुझे पाश्चात्य चित्रकला की तलाश करनी पड़ी थी और उस राह पर चलकर रफेल, बोतिचेल्ली, रेमब्राँ, माइकेलएंजिला से शुरू कर इंप्रेशइनस्टों के प्रति आकर्षित हो गया था। और इसी सिलसिले में मुझे डाली के बारे में पता चला था।

एक पुरुष जिस तरह अपना सारा आवेग, क्षोभ, दु:ख, क्रोध अभिव्यक्त कर सकता है, वैसा डॉली ने बहुत सार्थक रूप में किया है। डाली का मुल्क स्पेन है, जहाँ तक मैं जानता हूँ ब्रिटेन से वह एकदम अलग है। इतिहास बताता है कि स्पेन में बार-बार राजनीतिक उथल-पुथल होती रही है।
शेष यूरोप से स्पेनिश लोगों का शिल्प काफी अलग है। डाली के चित्र भी हो सकता है इसी वजह से भिन्न रहे हों। डाली के चित्रों में विद्रोह है, प्रतिवाद है। मैंने भी उसी भाषा को आत्मसात किया है। प्रतिवादी शिल्प रूपों में इससे पहले जिन लोगों ने काम किया उनमें चेरिको, मैकग्रिड, मार्क शागल अन्यतम थे। मेरे भीतर भी प्रतिवाद था और इसी वजह से इस राह को ही मैंने स्वाभाविक रूप से अपना लिया था।

डाली का जो पक्ष मुझे अच्छा लगता है, वह यह कि वे बहुत ही स्पष्टवादी थे, समय-समय पर इसके लिए वे बहुत रूढ़ भी हो जाते थे। अपने मंतव्यों को प्रकट करते हुए उन्होंने कभी भी निगाहें नहीं चुराईं। मुझे लगता है कि डाली शायद कुछ ज्यादा ही अ‍सहिष्णु थे।

उनकी स्पष्टवादिता ने उनकी लोकप्रियता को बहुत ज्यादा क्षति पहुँचाई थी। डाली की सिर्फ स्पष्टवादिता ने ही नहीं, उनकी अकारण चौंकाने की वृत्ति की वजह से भी उन्हें कई आलोचकों का शिकार होना पड़ा था। डाली पिकासो की व्यावसायिक मानसिकता की कड़ी निंदा किया करते थे, वे पिकासो को दक्ष कलाकार के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। हालाँकि कालांतर में, दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि डाली खुद भी उसी व्यावसायिक मानसिकता के शिकार हो गए थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में डाली की यह अकारण शोर मचाने की वृत्ति का मैंने कभी भी समर्थन नहीं किया, बल्कि मैंने घृणा ही की है।

पचास या साठ के दशक में जब मैंने चित्र बनाने की शुरुआत की, तब निरंतर अध्यावसाय ही मेरा सहारा था। चित्रविद्या की चर्चा मुझे कभी भी केवल भावात्मक चर्चा नहीं लगी, अभ्यास और लगातार अभ्यास को मैं बहुत जरूरी मानता हूँ। मैंने सुना है कि डाली भी अपने विद्यार्थियों से कहा करते थे कि पहले के द‍क्ष कलाकारों के कार्यों को देखकर सीखना चाहिए, उन्होंने अध्‍यावसाय को कभी नहीं छोड़ा था। डाली ने चौंकाकर नाम कमाने की कितनी भी कोशिश क्यों न की हो लेकिन चित्र बनाने में उन्होंने निष्ठा में किसी भी तरह की कंजूसी नहीं की थी। उन्होंने दुनिया के सामने जिस तरह से अपने जगत को अभिव्यक्त किया है, उसमें बहुत सचाई थी। उनकी स्पष्टवादिता ही उनका आकर्षण थी।

आंदोलन में भाषा की तलाश करते-करते मैंने डाली को एक वक्त अपने पास महसूस किया था, अपने पड़ोस में पाया था कॉलेज के दिनों में ही, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। उत्तर कलकत्ता के घर-द्वार, तथाकथित जमींदार की कोठी के तमाम अनाचार मेरे मन में विद्रोह जगाते थे। मैंने जब चित्र बनाने की शुरुआत की तब मैंने इन लोगों पर व्यंग्य किए थे और यही वजह रही कि मेरे चित्र कभी भी सुंदर-सुंदर नहीं रहे। मैं फूल, लता, पत्तियाँ आदि को लेकर कभी भी चित्र नहीं बना सका, राजा-रानी वगैरह मेरे पास व्यंग्य के विषय के रूप में आए थे।

डाली के चित्रों में इस तरह के तमाम व्यंग्य मिलते हैं। कभी राजनीति को लेकर, तो कभी मनुष्य के मन के दराजों को खोल-खोलकर नंगी सचाइयों को दिखाते वक्त। डाली ने मनुष्य के अवचेतन मन के दरवाजे को खोलकर अंदर घुसने की कोशिश की थी, वह जगह उन्हें कभी भी सुंदर महसूस नहीं हुई। मनुष्य की कामना-वासना, हिंसा, धर्म के नाम पर गुंडागर्दी आदि को लेकर उन्होंने बार-बार चित्र बनाए। ये तमाम चित्र मुझे प्रतिवाद के साथ-साथ बहुत अस्वीकृतिवाचक भी महसूस हुए हैं।

डाली ने बहुत सारे चित्रों में नारकीय दृश्य दिखाए हैं, जिनमें मनुष्य के मन की वीभत्स पशु प्रवृत्तियों ने वीभत्स रूप धारण किए हैं। जीवन की घड़ी पिघल रही है। लोग कहेंगे कि डाली ने समय पर व्यंग्य किया है, असल में डाली ने कहना चाहा था कि समय के आगे मनुष्य कितना असहाय है।
सर्रियलिज्म का एक प्रधान लक्षण है द्वैतवाद जो कि डाली के चित्रों में मौजूद है। हमारी कालीदेवी की मूर्ति में इस तरह का द्वैत मत है। वीभत्सता है और वे दयामयी माँ भी हैं। ज्यादातर सर्रियल शिल्प ही इस तरह की आपात विष्णता पैदा करती है। वृहद ब्रह्माण्ड के सामने मनुष्य की पाशविकता एक अन्य दार्शनिक मात्रा ले आती है। बुन्वेल की फिल्मों में भी यही अस्वीकृतिवाचकता का भाव काफी मिलता है। मैं जब 1965-66 में अपने ग्रांट लेन वाले स्टूडियो में काम करता था। तब इस तरह की कितनी ही अनुभूतियाँ मुझे हुई हैं।

एक दिन मैंने देखा कि खिड़की पर एक राजा का आविर्भाव हुआ, उनके दोनों पैरों में गिद्ध-जैसे नाखून थे, उनके होंठ भी शिकारी पक्षी की तरह मुड़े हुए थे और ‍सिर पर एक मुकुट भी था। हमारे पास इसी तरह के राजा आते हैं, शायद हम लोग उन्हें अपने मन में बुला लाते हैं।

मैंने राजा का चित्र बनाया था, उसका शीर्षक दिया था- 'विजिट ऑफ अ किंग'। और मैं अपने चित्र 'डेथ ऑफ अ हीरो' की बात भी बता सकता हूँ। इस चित्र में एक घोड़ा अपनी गर्दन पर एक सैनिक का शव लेकर आ रहा है, उसकी पीठ पर एक विशाल पक्षी बैठा हुआ है ‍जिसके बड़े-बड़े नाखून हैं। वह अपनी चोंच से उसे जकड़ लेना चाहता है।

आखिर में घोड़े को प्यार कर कंकाल रूपी देवदूत ने 'आहा!' कहते हुए जकड़ लिया है। उसके सिर पर स्वर्गीय विभा है। भगवान का नाम ले-लेकर बार-बार लोगों को नरक का दर्शन कराया गया है। दिखने में देवदूत-जैसा, सिर में अवज्ञा लेकिन भीतर वही पैशाचिक भाव। समाजवाद के नाम पर जो लोग एकनायकत्व दिखाने आए थे, उनकी तमाम वीभत्सता हम लोगों ने देखी है। लोगों ने सोचा था कि शायद स्वर्ग उतर आया है, लेकिन वह झूठ था। इस प्रसंग में याद आता है कि चित्पुर में एक तरह के चित्र मिला करते थे, जहाँ नरक के चित्रों की साफ तस्वीर बनाई जाती थी।

अब मैं डाली के नारी के प्रति मनोभावों को लेकर चर्चा करूँगा। डाली ने नारी को रक्त-मांस कामना-वासना से पूर्ण साधारण जीव के रूप में दर्शाया है, उसकी देहलोलुपता, हिंस्रता को लेकर भी उन्होंने वीभत्स चित्र बनाए हैं। मैंने भले ही नारी को इस रूप में नहीं देखा लेकिन नारी के अन्य छुपे हुए रूपों को देखा है। मैं जब किसी दफ्तर में जाता तो देखता कि सामने वाली टेबल पर जो रिसेप्शनिस्ट महिला बैठी है उसका चेहरा नहीं है, वहाँ‍ सिर्फ लाल लिपस्टिक लगाए दो होंठ हैं। खून पीने वाले। पड़ोसी संयुक्त परिवार में नई बहू आई।

लाल चूनर, लाल साड़ी, सिर से पैर तक लाल से ढँकी हुई। एक साल बीतते न बीतते उस बहू ने संयुक्त परिवार को कैसे तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। लाल कपड़े पहनी बहू को देखता तो मुझे शीतला की मूर्ति जैसी लगती। कॉलेरा, चेचक होने पर लोग शीतला देवी की पूजा करते हैं। शीतला, काली, छिन्नमस्ता, मनसा की मूर्तियों से लोग डरते हैं, लोग इन देवियों के नाम लेकर डराते भी हैं। लोग तो डर के मारे ही इनकी पूजा करते हैं। लाल कपड़ों से लिपटी हुई ये बहुएँ मानो इन देवियों जैसी ही होती हैं।

डाली का क्रूसिफिकेशन वाला चित्र जबर्दस्त रूप से अलग है। हम लोग क्रूसिफिकेशन का जो अर्थ जानते हैं, उससे डाली ने बिल्कुल अलग मात्रा संयोजित की थी। वहाँ जीसस को लेकर किसी तरह का खून-खराबा नहीं था बल्कि वहाँ तो उनका उत्थान था जिसे महिमान्वित करके दिखाया गया था। नीचे एक स्‍त्री को दिखाया गया है, वे 'मेरी' नहीं हैं। असल में उस स्त्री के अंतराल में डाली ने अपनी पत्नी को देखा था। डाली के भीतर था पत्नी-प्रेम और सबसे बड़ी चीज ईश्वर-भक्ति जो मुझे बहुत अच्छा लगता है। डाली मेरे मन में हमेशा अटूट स्थान बनाए रहेंगे।

(मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी)