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जिन्होंने दो लेखिकाएँ हमें दीं

विष्णु नागर

जिन्होंने दो लेखिकाएँ हमें दीं -
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कहने को तो हिंदी में लेखक बहुत हैं। हम भी उनमें से एक हैं लेकिन मैं दो ऐसे लेखकों की बात करना चाहता हूँ जिन्होंने दशकों से कुछ नहीं लिखा है। वे हैं प्रबोध कुमार और अशोक सेकसरिया। अपने समय के ये जाने-माने कथाकार थे लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि इन दोनों मित्रों ने लिखना बंद कर दिया या क्या पता छपाने में इनकी रुचि नहीं रही है।

प्रबोधजी दिल्ली के पास गुड़गाँव में रहते हैं। पिछले वर्षों में उनसे दो-चार बार टेलीफोन पर बातें जरूर हुई हैं लेकिन मुलाकात कभी नहीं हुई। अशोकजी से भी थोड़ी लंबी मुलाकात एक-डेढ़ दशक पहले कोलकाता में उनके घर पर हुई थी । तब से उन्हें न देखा, न मिला, न कभी टेलीफोन पर बात हुई, न पत्र-व्यवहार रहा।

इन दोनों ने भले ही दशकों से कुछ लिखा नहीं लेकिन जो काम इन दोनों ने किया है, वह भी आज तक किसी ने नहीं किया है। बेबी हालदार जिस आत्मकथा 'आलो-आंधारि' के कारण आज देश-विदेश में जानी जाती हैं, उसके प्रेरणा स्रोत प्रबोध कुमार हैं, जिन्होंने अपने घर में पति द्वारा परित्यक्त और परेशानहाल बेबी हालदार को उसके बच्चों समेत न केवल अपनी बेटी की तरह सुख-आराम से रखा, उसकी और उसके बच्चों की चिंता की, उसे पढ़ने और फिर लिखने के लिए लगातार प्रेरित किया।

बेबी का हौसला बढ़ाने वालों में प्रमुख अशोक सेकसरिया भी थे, जो कोलकाता से पत्र लिखकर लगातार उसकी डायरी (आत्मकथा) के अंशों की प्रशंसा करते। उसे और आगे लिखने के लिए प्रेरित करते। उसकी किताब छपाने की चिंता करते । उनका जिक्र 'आलो-आंधारि' में 'जेठू' के रूप में आया है। उन्होंने कैसे बेबी हालदार का रूपांतरण किया, उसकी कथा 'आलो-आंधारि' में प्रसंगवश विस्तार से आई है।

ND
मुझे याद नहीं आता कि इस तरह का प्रयत्न करने वाले, खुद पीछे रहकर, एक साधारण युवती को लेखिका बनाने को एक मिशन बनाने वाले, उसके लिए अहैतुक प्रयत्न करने वाले और कितने लेखक हिंदी में हैं! मैं प्रबोध कुमार को सलाम करता हूँ और उनसे अच्छे अर्थों में ईर्ष्या करता हूँ क्योंकि मैं उन जैसा कभी नहीं कर पाऊँगा। वह क्षमता, धैर्य, लगाव, उदारता हम में कहाँ!

और यही बात मैं अशोक सेकसरिया के बारे में भी कहना चाहता हूँ, न केवल बेबी हालदार के संदर्भ में बल्कि एक और संदर्भ में, जो प्रायः अज्ञात है। जिस रोशनाई प्रकाशन, 212 सी.एल./ए, अशोक मित्र रोड (सरकस मैदान के पास) कांचरपाड़ा, उत्तर 24 परगना (पश्चिम बंगाल) ने 2002 में बेबी हालदार की 'आलो-आंधारि' छापी थी, उसी ने दिसंबर 2005 में सुशीला राय की आत्मकथा 'एक अनपढ़ कहानी' भी प्रकाशित की थी लेकिन प्रायः चार साल इसके प्रकाशन को होने आए, यह पुस्तक अभी भी अज्ञात-अलक्षित सी है।

यह उत्तरी बिहार के मधुबनी जिले के एक गाँव की सुशीला राय की कहानी है जो पिछड़ी जाति के एक गरीब परिवार में जन्मी। रंग से काली होने के बावजूद उसकी शादी तो आसानी से तय हो गई लेकिन शादी की रस्म के वक्त लड़की को देखकर पति बहुत दुखी हो गया। ससुराल पहुँची तो सास ने डोली से उसे उतारने से मना कर दिया और उसे देखकर रोने लगी कि 'मेरे बेटे का गला काट लिया है।' खैर लंबी कहानी है। ससुराल में अपमानित-लांछित होने की और वहाँ से सहानुभूति-समर्थन मिलने की भी।

शादी के बाद पाँच साल तक गौना करके वापस ससुराल न लाने की भी। लाने के बाद भी पति द्वारा लगातार दस साल उपेक्षा की भी। बाँझ होने का कलंक झेलने की भी। अंततः कोलकाता पति के साथ आने की और कुल मिलाकर सुखी जीवन बिताने की भी। लेखक बनने की भी।

यह सब मार्मिक और सादे अंदाज में79 पृष्ठों की किताब में सुशीला राय ने स्वयं लिखा है जो बेबी के विपरीत बिलकुल निरक्षर थी। जिसे मैथिली के अलावा कोई भाषा बोलनी तक नहीं आती थी। हिंदी भी नहीं। लेकिन उन 'रमेश बाबू' के पत्रों ने-जिनके यहाँ उसका पति काम करता था- उसे साक्षर बनने के लिए प्रेरित ही नहीं किया बल्कि अंततः उसे लेखिका भी बनाया।

इन पत्रों में उसे हालात से लड़ने के लिए धीरज से काम लेने की सलाह होती थी, उसे उम्मीद बंधाई जाती थी कि घबराओ नहीं, तुम बाँझ नहीं रहोगी, एक दिन माँ बनोगी, इसमें उससे कहा जाता था कि तुम पढ़ना-लिखना सीखो ताकि मेरी चिट्ठियाँ खुद पढ़ सको और मुझे लिख भी सको।

'रमेश बाबू' उसे पढ़ने की प्रेरणा देने के साथ ही कहते कि तुम्हें किसी चीज की अगर जरूरत हो तो मुझे लिखो। उन्होंने उससे उसके गाँव आकर मिलने का आश्वासन दिया और फिर आए भी। सुशीला के लिए एक तरह से 'रमेश बाबू' माँ-बाप भी बन गए और भगवान भी। उन्हीं ने उसके पति को अंततः अहसास कराया कि तुम्हारी पत्नी काली होते हुए भी सुंदर है । इन्हीं 'रमेश बाबू' ने कोलकाता आने पर सुशीला राय को नई परिस्थिति के अनुरूप ढलना सिखाया।

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बेबी हालदार की किताब 'आलो-आंधारि' पढ़ने को दी और बताया कि बेबी ने यह किताब कैसे लिखी थी और फिर सुशीला के मुँह से यह सुनकर कि 'बाबूजी अगर मैं शुरू से पढ़ी-लिखी होती तो मेरे बारे में पीहर और ससुराल के लोगों ने क्या-क्या सोचा और क्या नहीं बोला, सब लिख लेती।' तो रमेश बाबू ने उसे लिखने की प्रेरणा दी और कहा कि 'सब सच-सच लिखना, जो तुम्हारे साथ हुआ है, वही लिखोगी, तुम अपने बारे में क्या सोचती थी, जीना चाहती थी कि मरना, सब।'

और सुशीला राय ने यह सब लिखा है, ईमानदारी से लिखा है, आत्मीयता से लिखा है और इस तरह लिखा है कि विश्वास करना मुश्किल है कि यह एक ऐसी औरत ने लिखा है, जो बमुश्किल साक्षर हुई है। पुस्तक के अंत में जगदीश और चंपा का प्रसंग तो हिलाकर रख देता है।

बहरहाल, एक और बेबी हालदार अब हमारे सामने है। वह हमारे अपने बिहार की है। और ये 'रमेश बाबू' और कोई नहीं हैं, अशोक सेकसरिया हैं, वही बेबी हालदार के 'जेठू'। प्रबोधजी की तरह वे ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानीकार के रूप में अपनी एक खास जगह बनाने के बावजूद एक सादा और प्रसिद्धि की रोशनी से दूर जीवन जीने की कोशिश की और पता नहीं और भी कितनों के जीवन को बदलने में चुपचाप योगदान दिया होगा। पेपरबैक में 'एक अनपढ़ कहानी' म हज 35 रुपए की किताब है।

इसके शुरुआती पृष्ठ पढ़कर मुझे किसी काम से बाहर जाना पड़ा तो मुझे अफसोस हुआ। और एक साँस में तो इसे मैं नहीं पढ़ पाया क्योंकि रात काफी हो चुकी थी। नींद घेर रही थी। लेकिन कह सकते हैं कि इसे मैं 'दो साँस' में जरूर पढ़ गया। दरअसल, हिन्दी को, भारतीय भाषाओं को बहुत सी बेबी हालदार, बहुत सी सुशीला राय चाहिए। तभी हम मध्यवर्गियों के दायरे से यह भाषा आगे निकलेगी। ताजा हवा में साँस लेगी।