हमने ज्ञान की साधना छोड़ दी। हमारे आलस्य,हमारी परावलंबी बनने की प्रकृति और अपनी ही व्यवस्था के प्रति अरुचि, उदासीनता और उपेक्षा ने गाँधी ने रमणीय वृक्ष की कल्पना को इस कदर चकनाचूर कर दिया कि आज हम जब देश की 20 करोड़ युवा आबादी को बेकारी की ठोकर खाते देखते हैं तो हमें सिर्फ बाजार और भूमंडली शिक्षा का षड्यंत्र याद आता है, मगर शायद गाँधी और धर्मपाल अगर जीवित होते तो भारतीय शिक्षा की दुर्दशा पर उनकी आँखों में आँसू छलछला आते।
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