शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By Author जयदीप कर्णिक

बाल ठाकरे- एक शेरदिल योद्धा का चला जाना

बाल ठाकरे- एक शेरदिल योद्धा का चला जाना -
PTI
शेर बूढ़ा भी हो जाए तो शेर ही रहता है। बाळा साहेब ठाकरे बूढ़े हो गए थे, बीमार थे पर उनकी जिंदादिली उतने ही जीवट के साथ धड़कती रही। अपनी मौत से भी वो एक योद्धा की तरह संघर्ष करते रहे। ऐसी तासीर, ऐसी बुलंदी, ऐसा करिश्मा, ऐसा अंदाज कि दुश्मन भी झुककर सलाम करें.... बिरले ही ये मुकाम हासिल कर पाते हैं।

एक कार्टूनिस्ट, एक पत्रकार जो राजनेता बन गया। पर उसने अपने अंदर के कलाकर्मी को, पत्रकार को, कार्टूनिस्ट को कभी मरने नहीं दिया। उनके पास विचार भी थे और अभिव्यक्ति भी। कार्टून के रेखाचित्रों की मौन अभिव्यक्ति वाणी से प्राणवान होकर इतनी मुखर हो गई कि शेर की दहाड़ बन गई। ऐसी दहाड़ जिससे ना केवल महाराष्ट्र बल्कि पूरा राष्ट्र गूँज उठा। शायद ही कोई होगा जो तमाम असहमतियों के बाद भी उन्हें सलाम ना करे।

मुझे ख़ास तौर पर उनकी दो बातों ने बहुत गहरे तक प्रभावित किया- एक उनका प्रखर राष्ट्रवाद और दूसरा उनकी नेतृत्व क्षमता। मराठी माणुस और महाराष्ट्र के लिए उनके तमाम आग्रह के बाद भी उन्होंने महाराष्ट्र को कभी राष्ट्र से अलग करके नहीं देखा। देश को और दिल्ली को उन्होंने अपनी समूची विचारधारा में पहला स्थान दिया।

ये बहस का विषय है कि समाज को चादर हटाकर खुद से रूबरू करवाने वाले ठाकरे की जरूरत है या फिर इस चादर से कपड़े सिलकर हमारी नंगई को ख़त्म करने वाले मसीहा की। वो जो इस राष्ट्र को रंगों में बाँटने की बजाय तिरंगे के नीचे खड़ा होकर उसे सलाम करना सिखाए
40 साल की उम्र में जब वे कार्टूनिस्ट से राजनेता बनने की राह पर चले तब दरअसल वो राजनेता नहीं जननेता ही थे। इसीलिए वो कभी वैसे राजनेता बन नहीं पाए। कोई राजनीतिक पद भी नहीं लिया। एक विचारशील पत्रकार था जिसे लगा कि मराठी संस्कृति को उसके मूल स्वरूप में बनाए रखने के लिए सभी मराठी भाषियों को एकजुट हो जाना चाहिए। एकजुट हो जाने का ये भाव उस सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में ही था, जिसमें मनुष्य ख़तरा महसूस करते ही अपनी सुरक्षा के इंतजाम में लग जाता है।

वे उस मुंबई को देख रहे थे जो तेजी से महानगर का रूप ले रही थी। कम्यूनिस्ट आंदोलनों की तेज धार, महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम और मायानगरी का ग्लैमर और पैसा एक तगड़े चुंबक की तरह लोगों को मुंबई की ओर खींच रहा था। इसीलिए 19 जून 1966 को उनके आव्हान पर शिवाजी पार्क में हुई ऐतिहासिक सभा में 40 हजार लोग इकट्ठा हो गए थे। ख़ास बात यह थी कि इस जमावड़े में अधिकांश किशोरवय और युवा थे। वो मराठी युवा जो ठाकरे के मराठियों को एकजुट करने के विचार भर से रोमांचित थे। ये युवा ना दूर तक देख सकते थे ना इसकी गहराई तक जाना चाहते थे। इन्हीं युवाओं ने शेर की दहाड़ के प्रतीक चिन्ह और भगवा पताका वाली शिवसेना को जन्म दिया। इस शिवसेना ने आने वाले समय की महाराष्ट्र की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।

महत्व इस पार्टी के बन जाने और उसके द्वारा की गई राजनीति का नहीं है। महत्व लगातार अपने उद्देश्य के लिए जान तक देने के लिए तैयार रहने वाले समर्थकों की बढ़ती संख्या का है। बहुत कोशिशों के बाद भी अपने उद्देश्य के लिए लड़ने-मरने वाले लोग तैयार नहीं हो पाते। संगठन चलाने वाले और अपने उद्देश्य के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति को इसका बहुत अच्छे से अंदाजा है। लेकिन बाल ठाकरे से लोग जुड़ते चले गए। करिश्मे की तरह, जादू की तरह।

तो, दूसरी जो बात बहुत प्रभावित करने वाली थी वो ये ही कि आप ऐसे लोग तैयार कर सकें जो आप में, आप के कहे में प्रबल आस्था रखते हों। पूरा भरोसा करते हों। जिस तरह पिछले तीन दिनों में हर वर्ग का व्यक्ति उनसे मिलने उमड़ पड़ा। उनके निधन के समाचार से हजारों आँखों से अश्रुधारा बह निकली। ये जुड़ाव बिरला है, मुश्किल है।

ये भी सच है कि उनके विचारों के चलते क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता का जो भयावह स्वरूप देश ने देखा वो डरा देने वाला है। लेकिन ये सतह के भीतर अरसे से खदबदा रही व्यापक जनभावनाओं, हमारी सामाजिक संरचना का, हमारे छुपे विचारों का ही खुला और वृहद प्रकटीकरण था। बाल ठाकरे ने तो केवल उस चादर को खींच कर फेंक देने का काम किया, जिसके भीतर हम सब नंगे थे। निरपेक्षता और सौहार्द की इस चादर को ओढ़कर हम पहला मौका मिलते ही घिनौने और पाशविक हो जाते हैं। धर्म के या क्षेत्र के नाम पर जो स्वार्थ सध सकता है, साधते हैं। चादर के खींच जाने से वर्जनाएँ टूटीं और एक वर्ग विशेष ये सब खुले आम वह सब करने लगा जो वो अब तक छुपकर कर रहा था। .... छुपकर करने वाले अपनी चमकती पॉलिश के पीछे आज भी कर रहे हैं।

ये अलग बहस का विषय है कि हमारे समाज को चादर हटाकर खुद से रूबरू करवाने वाले बाल ठाकरे की जरूरत है या फिर इस चादर से कपड़े सिलकर हमारी नंगई को ख़त्म करने वाले मसीहा की। वो जो इस राष्ट्र को रंगों में बाँटने की बजाय तिरंगे के नीचे खड़ा होकर उसे सलाम करना सिखाए। .... पर इसकी शुरुआत भी शायद चादर को हटाकर सच का सामना करने से ही होगी।

बहरहाल, आकलन और टीकाएँ होती रहेंगी। सच यह है कि बाल ठाकरे हुए और चले गए। अपनी मर्जी से जिए, अपने तौर-तरीकों से जिए। देशकाल पर अपना प्रभाव छोड़ गए। उस हिम्मत को, उस जिंदादिली को, उस गर्जना को - क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता के तंतु छानकर कैसे राष्ट्रहित में लगाया जा सकता है, ये ज्यादा बड़ा सवाल है।

अपनी माटी, अपने संस्कार और अपने स्वाभिमान से अगाध प्रेम करने वाले बाळा साहेब ठाकरे को प्रणाम - विनम्र श्रद्धांजलि।

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