शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By ND

विपश्यना और मानवीय संबंध

विपश्यना और मानवीय संबंध -
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परडेनिया विश्वविद्यालय (श्रीलंका) में पालि एवं बुद्धिस्ट स्टडीज विभाग की प्रो. (श्रीमती) लिली डी सिल्वा का कथन है कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला तो अपने आपको असहाय पाता है परंतु जब औरों के साथ एकजुट हो जाता है तब बड़ी से बड़ी समस्याओं का मुकाबला कर सकता है। पर ऐसा करने के लिए उनके पारस्परिक संबंधों का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। आपसी संबंधों को सुधारने में विपश्यना की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है।

मन को कलुषित करने वाले नीवरणों को दूर करने में विपश्यना का बड़ा योगदान है। उदाहरणस्वरूप क्रोध एक ऐसा विरोधीभाव है जो मन को कलुषित कर देता है और बहुत जल्दी आपसी संबंधों को बिगाड़ देता है। इसकी तुलना आग से की गई है जो अपने आधार को भी जला डालती है जैसा कि क्रोध उस व्यक्ति को भी जला देता है जिसके चित्त में जागता है। विसुद्धिमग्ग के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति को गाली देना उसके ऊपर विष्ठा फेंकने के समान है, जो अपने निशाने पर लगे या न लगे परंतु उस हाथ को तो दूषित कर ही देती है जो इसे फेंकता है।

अंगुत्तरनिकाय के आघातवग्ग में यह बताया गया है कि किसी विरोधीभाव (यथा क्रोध) से कैसे निपटना चाहिए। इसके अनुसार जिस किसी व्यक्ति पर क्रोध आ रहा हो, उसकी चारित्रिक विशेषता को ध्यान में रखते हुए क्रोध का शमन करना चाहिए।

किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति क्रोध जागे जिसके शारीरिक कर्म अशुद्ध हों किंतु वाणी के कर्म शुद्ध हों तो उसके अशुद्ध शारीरिक कर्मों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, उसकी वाणी की शुद्धता की ओर ध्यान देना चाहिए, जैसे किसी चीथड़े के मजबूत हिस्से को फाड़कर काम में ले लिया जाए और बाकी बचे हुए की अवहेलना कर दी जाए। किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति क्रोध उमड़े जिसके शारीरिक कर्म शुद्ध हों, पर वाणी के कर्म अशुद्ध हों तो उसकी वाणी के अशुद्ध कर्मों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए जैसे कोई तालाब में उतरकर शैवाल तथा पपड़ी को हटाकर अंजलि में पानी भर कर पी ले।

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किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति क्रोध होने लगे जिसके शारीरिक कर्म अशुद्ध हों, वाणी के कर्म भी अशुद्ध हों परंतु बीच-बीच में थोड़े समय के लिए वह शुद्ध रहता हो तो उसके अशुद्ध शारीरिक एवं वाणी के कर्मों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि जो बीच-बीच में थोड़े समय के लिए वह प्रीति-युक्त रहता है उसी की ओर ध्यान देना चाहिए, जैसे किसी गोपद में सीमित जल हो और कोई तृषित व्यक्ति उस पानी को बिना क्षुब्ध किए दोनों घुटनों और दोनों हाथों के बल पर झुककर गौ-बैल की तरह पानी पीकर चल दे।

किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति क्रोध उत्पन्न हो जिसके शारीरिक कर्म अशुद्ध हों, थोड़े समय के लिए भी वह न शुद्ध रहता हो, न प्रीतियुक्त रहता हो तो ऐसे व्यक्ति के प्रति करुणा, दया, अनुकम्पा रखनी चाहिए, जैसे किसी निर्जन प्रदेश में रोगी व्यक्ति की सहायता करने का भाव उदय होता है। किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति क्रोध जागे जिसके शारीरिक कर्म शुद्ध हों, वाणी के कर्म शुद्ध हों और बीच-बीच में भी शुद्ध एवं प्रीतियुक्त हो तो ऐसे व्यक्ति के शुद्ध वाणी के कर्मों तथा बीच-बीच की शुद्धता एवं प्रीति को ध्यान में रखते हुए विरोधी-भाव का शमन करना चाहिए।

इस प्रकार इन पाँच प्रकार के विरोधी-भावों के उत्पन्न होने पर इनका सर्वथा उपशमन करना चाहिए।

विपश्यना साधना आत्मनिरीक्षण की साधना है। इसका शाब्दिक अर्थ है किसी भी वस्तु को विशेष रूप से, नैसर्गिक रूप से, अथवा समग्र रूप से देखना। इस साधना से मनुष्य को अपने जीवन की समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने में बहुत सहायता मिलती है। मनुष्य यह समझने लगता है कि समस्याएँ कैसे पैदा होती हैं, क्यों बनी रहती हैं, कैसे समाप्त हो जाती हैं और कैसे इनके दुष्परिणाम को कम किया जा सकता है।

यह भी समझ में आने लगता है कि यदि कहीं परिवर्तन लाना आवश्यक होता है तो यह परिवर्तन अपने आप में ही लाना होता है, दूसरे में नहीं। इस प्रकार विपश्यना कोरी साधना ही नहीं, सार्थक जीवन जीने की कला है। जैसे-जैसे मन निर्मल होता जाता है, मनुष्य की समस्याएँ ठोस आकार प्राप्त करने से पहले ही नदारद होने लगती हैं।