शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By अनिल जैन

हीनताबोध पैदा करते विज्ञापन

हीनताबोध पैदा करते विज्ञापन -
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भारतीय समाज में सुंदर देहयष्टि और त्वचा के गोरेपन को लेकर तमाम तरह के पूर्वाग्रह सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। इसी के चलते अपने को गौरवर्ण और छरहरा बनाने-दिखाने की ललक भी कोई नई बात नहीं है। शरीर के सांवलेपन को दूर कर उसे गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के लेप और उबटनों का उपयोग भी हमारे यहां प्राचीनकाल से होता आया है। लेकिन कोई दो दशक पहले शुरू हुई बाजारवादी अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण की विनाशकारी आंधी ने इस सहज प्रवृत्ति को एक तरह से पागलपन में तब्दील कर दिया है।

माना जाता है कि बाजार में होने वाली प्रतियोगिता उपभोक्ता और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए फायदेमंद होती है। लेकिन इस प्रतियोगिता में कई तरह का विकृतियां भी दिखाई देती हैं। अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने और मुनाफा कमाने के फेर में बहुत से विज्ञापनों, खासकर सौंदर्य प्रसाधनों और शरीर को आकर्षक बनाने वाले उत्पादों के विज्ञापनों में भ्रामक दावे किए जाते हैं।

कथित तौर पर गोरा बनाने वाली क्रीम और मोटापा घटाने की दवाइयों के टीवी चैनलों पर आने वाले विज्ञापनों ने किशोर और युवा मन की संवेदनाओं का शोषण करते हुए उनके मानस पटल पर देह की बनावट और चमड़ी के रंग पर रचा सौंदर्य का यह पैमाना गहराई से अंकित कर दिया है कि गोरे रंग और छरहरी काया के बगैर न तो मनचाहा हमसफर मिल सकता है और न ही रोजगार।

चमड़ी के गोरे रंग पर आधारित पश्चिम की इस रंगभेदी सौंदर्य दृष्टि से उपजा हीनताबोध और कुंठा कितनी खतरनाक होती है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल रहे हैं मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन। जिस समय पश्चिमी समाज में रंगभेद के खिलाफ जारी संघर्ष अपने निर्णायक दौर में था, गौरांग 'महाप्रभुओं' के यूरोपीय देशों सहित पूरी दुनिया में इस श्यामवर्णी लोकप्रिय कलाकार की पॉप गायकी का जादू छाया हुआ था।

बेपनाह दौलत और शोहरत हासिल करने के बाद अपनी त्वचा को काले रंग से छुटकारा दिलाने की कुंठा जनित ललक में जैक्सन ने अपने शरीर की प्लास्टिक सर्जरी कराई थी। इस सर्जरी से वह गोरा तो हो गया था, लेकिन सर्जरी और दवाओं के दुष्प्रभावों के चलते उसे कई तरह की बीमारियों ने अपना शिकार बना लिया था, जो आखिरकार उसकी मौत का कारण बन गईं।

जैक्सन की बहन जेनिथ जैक्सन तो आज भी अपने काले रंग के बावजूद पॉप गायकी के क्षेत्र में धूम मचाए हुए है। इसी सिलसिले में चर्चित मॉडल नाओमी कैंपबेल का जिक्र भी किया जा सकता है जो अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के दम पर आज ग्लैमर की दुनिया में सुपर मॉडल के तौर पर जानी जाती है। उसकी इस उपलब्धि में उसकी त्वचा का काला रंग कहीं से आड़े नहीं आया। व्यक्ति की कामयाबी में चमड़ी के गोरे रंग की कोई भूमिका नहीं होती, इस तथ्य को जोरदार तरीक से साबित करने वालों में बराक ओबामा का नाम भी शुमार किया जा सकता है, जो आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश कि राष्ट्रप्रमुख हैं।

बहरहाल, हमारे यहां प्रचार माध्यमों और सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे विज्ञापन आम हैं जिनमें मोटापा घटाने, गोरा बनाने, सौंदर्य निखारने, कद बढ़ाने आदि के दावे तथा वस्तुओं पर भारी छूट, एक के साथ एक मुफ्त और आकर्षक उपहारों के वादे किए जाते हैं। इसी तरह ह्रदय रोग, मधुमेह और रक्तचाप जैसी बीमारियों से निजात दिलाने वाली खाद्य सामग्री का प्रचार भी खूब चलता है। चूंकि उपभोक्ताओं के पास इन वस्तुओं के बारे में किए गए दावों को जांचने का कोई तरीका नहीं होता है और वह विज्ञापनों के झांसे में आकर कंपनी या दुकानदार पर विश्वास करते हुए उनका इस्तेमाल करने लगता है।

इन वस्तुओं का इस्तेमाल लोगों की सेहत पर क्या असर डालता है, यह भी जांचने का कोई तरीका उपभोक्ताओं के पास नहीं होता। जहां तक सौंदर्य प्रसाधनों से जुड़े उत्पादों का सवाल है, अनुमानतः हमारे देश में आज गोरा बनाने वाली क्रीम और अन्य उत्पादों का बाजार करीब दो हजार करोड़ रूपए का है। इसी के साथ मोटापा घटाने वाली दवाओं का बाजार भी तेजी से कुलांचे भरता हुआ लगातार बढ़ता जा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि इस तरह की क्रीमों और दवाओं से चमड़ी का रंग बदलना और मोटापा कम होना तो दूर, उलटे इन चीजों के इस्तेमाल से दूसरी बीमारियां जन्म ले लेती हैं। लेकिन मुनाफा कमाने की होड़ में शामिल इन कंपनियों और इनके विज्ञापन प्रसारित करने वाले प्रचार माध्यमों पर इन बातों का कोई असर नहीं होता है। इन उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए फिल्म, टीवी और खेल जगत के सितारों से इनके विज्ञापन कराए जाते हैं।

विडंबना यह है कि सांवले और मोटे लोगों में हीनता-बोध पैदा कर उनकी नैसर्गिक योग्यता पर नकारात्मक असर डालने वाले इन विज्ञापनों में किए गए दावों की असलियत जांचने के लिए हमारे यहां न तो कोई कसौटी है और न ही ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए कोई असरदार तंत्र। ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगाने की मांग किसी राजनीतिक दल के एजेंडा में भी आज तक जगह नहीं पा सकी है।

अलबत्ता मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की महिला शाखा जरूर इस बात को उठाती रही है, लेकिन उसकी पहल नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई है। संतोष की बात है कि देर से ही सही, प्रधानमंत्री कार्यालय की नजर गोरा बनाने वाली क्रीम और मोटापा घटाने वाली दवाओं के फरेबी विज्ञापनों की ओर गई है। उसने ऐसे विज्ञापनों के सामाजिक दुष्प्रभावों को गंभीरता से लेते हुए इन पर नियंत्रण की प्रणाली तुरंत स्थापित करने के निर्देश दिए हैं।

प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने इस सिलसिले में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठक कर उनसे कहा है कि उनके विभाग को ऐसी नियामक प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे लोगों को भ्रमित करने वाले ऐसे विज्ञापनों के प्रसार पर रोक लगे। विभाग को एक महीने के भीतर इस बारे में दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने को कहा गया है। बताया गया है कि नियामक प्रणाली को जल्द से जल्द अमल में लाया जाएगा, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय इस मुद्दे को लेकर बहुत गंभीर है। प्रस्तावित दिशा-निर्देशों में वे सब विज्ञापन आएंगे, जो गोरा बनाने, मोटापा दूर करने और इसी तरह के अन्य झांसे लोगों को देते हैं।

सरकार ने जो पहल की है वह अपनी जगह है। उसकी सफलता की कामना करनी चाहिए, लेकिन यह सामाजिक जिम्मेदारी से जुड़ा मामला भी है। आखिर चमड़ी के रंग और शरीर के आकार-प्रकार पर आधारित खूबसूरती और कामयाबी का यह विकृत पैमाना स्वस्थ समाज के निर्माण में कैसे सहायक हो सकता है? इस तरह के पैमाने रचने वाली मानसिकता के खिलाफ व्यापक स्तर पर मुखर सामाजिक आंदोलन भी समय की मांग है। इस सिलसिले में पिछले दिनों मिस यूनिवर्स चुनी गई अंगोला की लीला लोपेज की मिसाल सामने रखी जा सकती है, जिसने देह और रंग के कठघरे में कैद सुंदरता के पैमाने को करारा झटका दिया है।

उसने मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता के दौरान पूछे गए एक सवाल के जवाब में बेबाकी से कहा कि अगर मुमकिन हो तो भी वह अपने रंग-रूप में कोई बदलाव करना नहीं चाहेंगी और वैसी ही दिखना पसंद करेंगी, जैसा कुदरत ने उसे बनाया है। उसने यह भी कहा कि वह अपने स्वाभाविक रंग-रूप से संतुष्ट और खुश है तथा खुद को ऐसी स्त्री के रूप में देखना चाहती है जो भीतर से सुंदर हो। प्रश्न पूछने वाले विशेषज्ञों को लाजवाब कर देने वाला लीला लोपेज का यह जवाब आज की दुनिया में सौंदर्य के प्रचलित मानदंडों के बारे में नई तरह से सोचने का और खूबसूरती निखारने वाले भ्रामक विज्ञापनों से बचने आग्रह करता है।