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Written By ND

परमाणु समझौते के पीछे का काला सच

परमाणु समझौते के पीछे का काला सच -
- सचिन शर्मा
भारत-अमेरिका के बीच जल्दी ही मूर्त रूप लेने वाले परमाणु समझौते के पीछे एक काला सच भी छुपा हुआ है, जिस पर अभी तक किसी की नजर नहीं गई है। परमाणु समझौते के काले सच के तथ्य सचमुच चौंकाने वाले हैं।

अधिक बिजली उत्पादन के नाम पर शुरू की जा रही इस वृहद मुहिम के पीछे कुछ लोग अमेरिका के हित देख रहे हैं तो कुछ बहुत गंभीर खतरे की बात कर रहे हैं। कारण कई हैं लेकिन ठोस तथ्यों पर नजर डालने पर लगता है कि परमाणु समझौते को ठोस रूप देने से पहले भारत सरकार और यहाँ के इंजीनियर्स को अच्छे से 'होमवर्क' कर लेना चाहिए।

क्या है समझौते में? अमेरिका की तकनीकी मदद से भारत में परमाणु ऊर्जा चलित (फॉस्ट ब्रीडर टैक्नोलॉजी आधारित) 25 से 40 बिजली उत्पादन संयंत्र लगने वाले हैं। इनसे प्रतिवर्ष 50 हजार मैगावॉट बिजली का उत्पादन होगा। यह 25 संयंत्र देश के विभिन्न भागों में लगेंगे और इनमें से प्रति संयंत्र लगभग 2 हजार मैगावॉट बिजली का उत्पादन करेगा। अमेरिका इन सभी संयंत्रों के लिए ईंधन उपलब्ध करवाएगा और यह ध्यान रखेगा कि इसका उपयोग सामरिक ना हो।

मुख्य समस्याएं क्या हैं? फॉस्ट ब्रीडर परमाणु संयंत्र के साथ आने वाली मुश्किलें...

* संयंत्र में बिजली उत्पादन के लिए काम आने वाले यूरोनियम के विघटन के दौरान प्लूटोनियम नामक धातु पैदा होती है।

* 25 ग्राम प्लूटोनियम एक खरब कणों में विभक्त हो सकता है। यह फैफड़ों के कैंसर के लिए जिम्मेदार कारक होता है। प्लूयोनियम धातु का नाम ही नर्क के देवता (प्लूटो) के नाम पर रखा गया है।

* प्लूटोनियम ऑक्साइड की आधी उम्र 24 हजार वर्षों की होती है। यह एक लाख साल तक अपनी घातक विकिरण छोड़ता रहता है।

* जब तक संयंत्र चालू रहता है तब तक प्लूटोनियम के रिसने की संभावना बनी रहती है।

* संयंत्र से रिसने वाले रेडियोएक्टिव पदार्थ किसी ना किसी रूप में स्थानीय जल स्त्रोत या किसी झील से मिल सकते हैं।

* इस तरह से ये पदार्थ 100 वर्ग किमी तक फैल सकते हैं। अगर किसी भी तरह से ये पदार्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तो उसकी सुरक्षा सीमा से हजार गुणा ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं।

* परमाणु संयंत्रों को अगर बंद भी कर दिया जाये तो उनके आस-पास की भूमि अगले 500 साल तक इस्तेमाल करने लायक नहीं रह जाएगी।

* न्यूनतम सुरक्षित डोज (0.17 रेड प्रति वर्ष, प्रति व्यक्ति) देने पर 96 हजार ल्यूकैमिया (ब्लड कैंसर) के रोगी पैदा होंगे, जिनके इलाज के ऊपर 1 अरब डॉलर का खर्च आएगा। यह निष्कर्ष नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर लाइनस पोलिंग के अध्ययन पर आधारित हैं।

* नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर जोशुआ लेडरबर्ग के अनुसार परमाणु संयंत्रों में से जिस स्तर की विकिरण निकलती हैं उन्हें सुरक्षित सीमा में लाने के लिए 100 गुणा कम किये जाने की जरूरत है, जो तकनीकी रूप से असंभव है।

* हर दो वर्षों में संयंत्रों में उपयोग किया जाने वाला ईंधन रिप्रोसेस के लिए रिप्रोसेस फैसिलिटी में भेजा जाता है। वहाँ उसमें से प्लूटोनियम को अलग किया जाता है। ऐसे ईंधन को रेलवे या रोडवेज के माध्यम से ही भेजा जाएगा।

* इस तरह से जाने वाले ईंधन टैंक पर अगर एक सफल आतंकवादी हमला हो जाता है तो वह 10 हजार वर्ग किमी तक असर करेगा और इसकी चपेट में लगभग 1 लाख 60 हजार (भारतीय जनसंख्या के घनत्व के अनुसार) लोग आएँगे, जो ब्लड कैंसर से अकाल मौत मारे जाऐँगे।

* संयंत्र में परमाणु ईंधन को रखने वाले कूलिंग टैंक के भी लीक होने की दशा में रेडियोएक्टिव मेटेरियल के भूजल में मिलने की संभावना बनी रहेगी।

* एक हजार मैगावॉट क्षमता वाला परमाणु रिएक्टर दो साल में जितना रेडियोएक्टिव जहर फैलाएगा, वह हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरने वाले बमों से 2 हजार गुणा ज्यादा बम की शक्ति बराबर होगा।

विश्व में परमाणु संयंत्रों की वास्तविक स्थिति

* उत्पादन की तय क्षमता से सिर्फ 75 फीसदी तक परिणाम देना।

* परमाणु संयंत्रों की उम्र 60 वर्ष तय की गई थी, लेकिन ये सिर्फ 36 वर्षों तक ही काम आते हैं।

* अगले 20 सालों में ब्रिटेन में काम कर रहे सभी परमाणु संयंत्र बंद कर दिए जाएँगे।

* फ्रांस, जापान और रूस में फास्ट ब्रीडर रिएक्टर्स को तब बंद कर दिया गया जब पता चला कि उनमें से लीकेज की समस्या है। इस समय सिर्फ रूस में बीएन-600 नामक एक रिएक्टर चल रहा है, लेकिन उससे ब्रीडर के तौर पर नहीं बल्कि प्लूटोनियम बर्नर के तौर पर काम लिया जा रहा है।

* ब्रिटेन के फास्ट ब्रीडर रिएक्टर 1994 में दुर्घटनाओं के लंबे सिलसिले के बाद बंद कर दिए गए।

* अप्रैल 2005 में सैलाफील्ड स्थित थोर्प न्यूक्लीयर रिप्रोसेसिंग प्लांट तब बंद कर दिया गया जब पता चला कि उसमें से 20 हजार टन रेडियोएक्टिव फ्लूइड रिस गया है और उसका पता 9 महीने तक नहीं चल पाया।

* हिरोशिमा और नागासाकी में बम गिरने के 20 वर्ष बाद तक लोगों में कैंसर होता रहा यानी रेडियोएक्टिव पदार्थों ने अपना असर 20 वर्ष बाद तक दिखाया।

* रूस के चेर्नोबेल स्थित परमाणु संयंत्र में हुए कुख्यात परमाणु रिसाव से 60 हजार लोगों की ब्लड कैंसर से जान गई थी। इतना ही नहीं वहां से हजारों किमी दूर स्थित ब्रिटेन में भी इसी दुर्घटना के फलस्वरूप बच्चे मृत पैदा हुए थे।

आईआईटी दिल्ली के रिसर्च स्कॉलर और एसजीएसआईटीएस कॉलेज इंदौर के लैक्चरर विनोद पाराशर कहते हैं कि यह समझौता भारत के लिए सीधे तौर पर घातक सिद्ध होगा।

इस समझौते में फायदा सिर्फ अमेरिका को है और घाटा सिर्फ भारत को। घनी आबादी वाले अपने देश को इस समझौते के लागू होने के बाद जिन कष्टों से गुजरना पड़ेगा उनके बारे में अभी सरकार सचेत नहीं है।

आईआईटी दिल्ली स्थित रूरल डवलपमेंट सेंटर में विजीटिंग फैकल्टी डॉ. सुधाकर का इस मामले में मानना है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस होनी चाहिए। वे कहते हैं कि इंजीनियरिंग कम्युनिटी को बिना विश्वास में लिए यह कदम उठाना खतरनाक हो सकता है क्योंकि इससे होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती।

आईआईटी दिल्ली से ही पीएचडी कर रहे राजकुमार कहते हैं कि भारत के लिए यही अच्छा है कि वह खुद के स्त्रोतों का इस्तेमाल करे। गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोत ऊर्जा की कमी से मुकाबला करने में सबसे ज्यादा सक्षम हैं इसलिए प्राकृतिक स्त्रोंतों के उपयोग पर जोर देना चाहिए।