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Written By उमेश चतुर्वेदी
Last Updated : मंगलवार, 8 जुलाई 2014 (14:06 IST)

नहीं रहा बिंदास और स्टार लेखक

नहीं रहा बिंदास और स्टार लेखक -
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टेलीविजन का पर्दा भी अजीब है। खबरें यहां चमकती हैं, दुख की खबरें भी यहां चमक बिखेरते आती हैं। खुशवंत के निधन की दुखद खबर भी चमक बिखेरते हुए ही आई। अंग्रेजी की दुनिया के इस अहम हस्ताक्षर ने 99 साल की भरी-पूरी जिंदगी जी। मौत को भी वे सेलिब्रेट करना चाहते थे। अपने एक हालिया साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वे आखिरी वक्त तक सक्रिय रहना चाहते हैं। फकत कुछ महीने पहले ही उनका स्तंभ ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ बंद हुआ।

कबीर के प्रसिद्ध दोहे 'कबिरा खड़ा बाजार में मांगी सबकी खैर' की अगली लाइन सालों तक हिंदी पाठकों की शनिवार की सुबह की साथी रही। इसी स्तंभ के जरिए इन पंक्तियों का लेखक भी खुशवंतसिंह से परिचित हुआ था। मूलत: अंग्रेजी में लिखे इस स्तंभ को 1996 में कुछ महीनों तक दिल्ली के एक अखबार के लिए इसका अनुवाद करने का सौभाग्य भी मिला। अपने देश में अंग्रेजी के लेखक को वैसे ही स्टार का दर्जा हासिल होता है, लेकिन इस एक स्तंभ के जरिए खुशवंत भारतीय भाषाओं के भी स्टार और चहेते पत्रकार बने रहे।

खुशवंतसिंह उस सर सोभासिंह के बेटे थे, जिनकी करीब आधी दिल्ली थी। खुशवंत चाहते तो अपने पारिवारिक ठेके और बिल्डर्स के कारोबार में उतर जाते। कानून की पढ़ाई की, लेकिन उनका मन कानूनी पेशे में नहीं रमा। पिता बड़ा अफसर बनाना चाहते थे। लेकिन खुशवंत अफसर भी नहीं बन पाए और लेखन का दामन थाम लिया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उन्होंने ही भारत सरकार की योजना पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था। जो अब कई भाषाओं में निकलती है। खुशवंत ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त के दफ्तर में प्रेस अताशे भी रहे, जब वीके कृष्णामेनन ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे। उनके कार्यकाल के दौरान ही पंडित नेहरू का आधीरात को एडविना के घर पहुंचते वक्त का फोटो द गार्जियन में प्रकाशित हुआ था। जिससे नेहरू की किरकिरी हुई थी। जाहिर था कि इसकी कीमत खुशवंत को भी चुकानी पड़ी थी। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा और कई लेखों में भी किया है। खुशवंत यूनेस्को में भी कार्यरत रहे और पेरिस में तैनात रहे। इस दौरान हुए अनुभवों ने उन्हें लेखक बनाया।

खुशवंत के संपादक बनने से पहले टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की साप्ताहिक पत्रिका द इलेस्ट्रेटेड वीकली बेहद कमजोर थी। उन्होंने संपादक का पद संभालते ही इसे ग्लैमर और गंभीरता का कोलाज बनाना शुरू किया। फोटो ग्लैमरस छापते..लेकिन सामग्री बेहद गंभीर और देखते ही देखते पत्रिका का जबर्दस्त प्रसार बढ़ा। इस दौरान वे संजय गांधी के नजदीक आए। उन्होंने आपातकाल का समर्थन भी किया और इसके लिए उन्होंने कभी सफाई नहीं दी। जनता पार्टी के शासन के दिनों में जब शाह आयोग ने संजय के खिलाफ सुनवाई की तो वे संजय के साथ खड़े रहे। संजय की असामयिक मौत के बाद मेनका गांधी और इंदिरा गांधी के बीच उभरे मतभेद को सुलझाने की भी उन्होंने कोशिश की..हालांकि नाकाम रहे। कहा तो यह जाता है कि हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक उन्हें इंदिरा गांधी के ही कहने पर बनाया गया था।

खुशवंतसिंह की छवि बिंदास और महिलाओं के बीच घिरे रहने वाले शख्स की थी। बेशक वे सुंदर महिलाओं का साथ और शाम को शराब के दो पैग जरूर पसंद करते थे। लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने अपनी बिंदास छवि जानबूझकर बनाए रखी। हालांकि हकीकत इसके उलट थी। खुशवंत खुद को नास्तिक बताते रहे, लेकिन दो खंडों में लिखा सिखों का इतिहास उनके लेखन की अमोल निधि है। इसके लिए उन्हें सिख कौम ने सर आंखों पर बिठाया। इसके लिए उन्हें 1974 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। जिन इंदिरा गांधी और संजय गांधी का वे लगातार साथ देते रहे, उनके ही एक फैसले का उन्होंने जबर्दस्त विरोध किया। 1984 में जब भिंडरावाले की खाड़कू सेना के खिलाफ स्वर्ण मंदिर में सेना को भेजा गया तो इसके खिलाफ उन्होंने पद्मभूषण का सम्मान वापस करने में भी देर नहीं लगाई।

खुशवंत ने कथा साहित्य भी लिखा। हालांकि भारतीय अंग्रेजी लेखन में उन्हें बेहतर कथाकार नहीं माना गया। इसके बावजूद भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखे उनके उपन्यास 'ट्रेन टू पाकिस्तान' को काफी सराहना मिली। यह उपन्यास इतना चर्चित रहा कि इस पर इसी नाम से फिल्म भी बनी। दिल्ली पर उन्होंने डेल्ही नाम से भी उपन्यास लिखा है। इसी तरह अपनी जिंदगी में आई औरतों पर उन्होंने 'कंपनी ऑफ वुमन' नाम से किताब भी लिखी। जिसमें अपनी जिंदगी में आई महिलाओं पर तफसील से लिखा है। खुशवंत के लेखन में सेक्स भी जीवंत पक्ष रहा है। इसे जाहिर करने में वे कभी नहीं हिचके और यह लेखन में भी दिखता रहा। आज की दुनिया में जब अपने अतीत की गलाजतों को छुपाने का चलन रहा है, खुशवंत अपने पहले सेक्स मुठभेड़ से लेकर अपने माता-पिता के सेक्स जीवन पर भी लिखने से नहीं चूके...

खुशवंत खुद नास्तिक थे, लेकिन सलमान रश्दी की किताब 'द सेटेनिक वर्सेस' किताब को भारत में रिलीज करने का उन्होंने विरोध किया था, तब वे इसकी प्रकाशक पेंगुइन के सलाहकार थे। उनका मानना था कि इस किताब से भारत में धार्मिक भावनाएं भड़क सकती हैं। खुशवंत अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका बहुबिध लेखन बरसों तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा। (लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं)