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Written By ND

धर्मनिरपेक्षता और वाम राजनीति

धर्मनिरपेक्षता और वाम राजनीति -
- कुलदीप कुमार

धर्मनिरपेक्षता को वामपंथी विचारधारा की मूल प्रतिज्ञाओं में से एक माना जाता है। वामपंथी दल भी अपनी धर्मनिरपेक्षता को बगैर किसी मिलावट के शत प्रतिशत शुद्ध मानते हैं, लेकिन वास्तविकता इससे काफी भिन्न है। उनके विचार और कर्म के बीच खासी दूरी है। उनके लिए भी धर्मनिरपेक्षता अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सकने वाला औजार है।

शायद ऐसी ही स्थिति के बारे में टीएस एलियट ने अपनी मशहूर कविता
  जाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के आदर्श पर अमल करने में अनेक दिक्कतें सामने आती हैं। इसीलिए सभी लोकतांत्रिक समाजों में जहाँ धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को स्वीकार कर लिया गया है, अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए कानूनी व्यवस्थाएँ की जाती हैं      
हौलो मेन (खोखले आदमी) में लिखा था : 'विचार और वास्तविकता के बीच, गति और क्रिया के बीच, छाया गिरती है'। यहाँ यह उल्लेख न करना भी अनुचित होगा कि अन्य दलों की तुलना में वामपंथियों का रिकॉर्ड बहुत बेहतर है। लेकिन उनमें और अन्य दलों में वैसा तात्विक अंतर नहीं है जैसा वे खुद समझते हैं या जैसा अंतर होने का वे दावा करते हैं।

धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनका रवैया भी नितांत अवसरवादिता का रहा है, और जैसे-जैसे वे संसदीय व्यवस्था में रचते-बसते जा रहे हैं, वैसे-वैसे ही वह बढ़ता जा रहा है। अब तो यह अवसरवादिता इस कदर बढ़ गई है कि भारत की विदेश नीति और परमाणु कार्यक्रम को भी वे वोट हासिल करने का जरिया बनाना चाहते हैं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जिसका व्यापक विरोध होना चाहिए।

लेकिन सबसे पहले हम एक क्षण के लिए रुककर इस प्रश्न पर विचार कर लें कि धर्मनिरपेक्षता आखिर है क्या? समाजवाद की तरह ही इसकी भी अनेक व्याख्याएँ प्रचलित हैं। और तो और, भारतीय जनता पार्टी तो अपनी साम्प्रदायिकता को ही धर्मनिरपेक्षता के रूप में पेश करती है और अन्य व्याख्याओं को छद्म-धर्मनिरपेक्षता बताती है। धर्मनिरपेक्षता की जरूरत उन समाजों में पड़ती है, जहाँ एक से अधिक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं।

जाहिर है कि इनमें किसी एक धर्म के मानने वाले अधिक संख्या में होंगे। कुछ ऐसे समाज भी हैं, जिनमें अधिकांश आबादी एक ही धर्म को मानने वाले लोगों की है और दूसरे धर्मों को मानने वाले बहुत कम संख्या में हैं। ऐसे समाजों में धर्मनिरपेक्षता की जरूरत पड़ती है ताकि बहुसंख्यक आबादी के सामने अल्पसंख्यक लाचार महसूस न करें, उनके साथ भेदभाव न बरता जाए, वे अपने धर्म, संस्कृति और रीति-रिवाजों का पालन कर सकें। बहुसंख्यक आबादी उनकी धार्मिक अस्मिता को कुचल न सके और सभी अपने-अपने धर्मों का बिना किसी रुकावट के पालन कर सकें। राज्य की निगाह में सभी नागरिक समान हों और वह किसी धर्म-विशेष को तरजीह न दे।

जाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के आदर्श पर अमल करने में अनेक दिक्कतें सामने आती हैं। इसीलिए सभी लोकतांत्रिक समाजों में जहाँ धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को स्वीकार कर लिया गया है, अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए कानूनी व्यवस्थाएँ की जाती हैं।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि राज्य अपनी नीतियाँ अल्पसंख्यक समुदाय की पसंद या नापसंद के आधार पर तय करेगा। देश की नीतियाँ राष्ट्रहित के आधार पर तय की जानी चाहिए, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समुदाय की पसंद या नापसंद के आधार पर नहीं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का शीर्ष नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक नए और बेहद खतरनाक सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहा है।

पिछले साल लखनऊ में भाषण देते हुए पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने
  कुछ समय पहले तसलीमा नसरीन कांड ने भी साफ कर दिया था कि सीपीएम को अब उसी तरह मुस्लिम वोट बैंक नजर आने लगा है जिस तरह भाजपा को हिन्दू वोट बैंक नजर आता है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वह मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करना चाहती है      
ईरान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में वोट करने के लिए मनमोहनसिंह सरकार की आलोचना की और कहा कि ऐसा करते समय उसे देश के शिया समुदाय की भावनाओं का खयाल रखना चाहिए था, क्योंकि ईरान एक शिया देश है और हमारे देश के शियाओं के उसके साथ घनिष्ठ संबंध रहे हैं।

अब इसी पार्टी के एक अन्य शीर्ष नेता एमके पंधे ने विचार व्यक्त किया है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायमसिंह यादव, जिनका देश के मुसलमानों के बीच अच्छा-खासा जनाधार है, को भारत-अमेरिका परमाणु करार पर मनमोहनसिंह सरकार को समर्थन देते समय सोचना चाहिए कि मुस्लिम समुदाय अमेरिका और इस समझौते के खिलाफ है।

यानी समझौते का समर्थन या विरोध इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि वह देश के हित में है या नहीं, बल्कि इसलिए होना चाहिए कि मुसलमान उसके खिलाफ हैं। उनके इस बयान के तुंरत बाद कई बड़े मुस्लिम संगठनों ने इसके विरोध में बयान जारी करके स्पष्ट किया कि वे परमाणु समझौते के खिलाफ नहीं हैं।

पंधे से पूछा जाना चाहिए कि उन्हें यह इलहाम कैसे हुआ कि भारत के मुसलमान अमेरिका के खिलाफ हैं? अमेरिका ने उनका क्या बिगाड़ा है? और यदि अमेरिका ने भारतीय मुसलमानों का कुछ बिगाड़ा है तो हिन्दुओं का क्या अच्छा किया है? यदि अमेरिका भारत के लिए कुछ अच्छा या बुरा करता है, तो उससे हिन्दू हों या मुसलमान, सभी प्रभावित होते हैं। दूसरे, क्या भारत अपनी विदेश नीति और परमाणु कार्यक्रम की दिशा मुसलमानों के अनुसार निर्धारित करेगा?

सीपीएम के लिए धर्मनिरपेक्षता एक जीवनमूल्य तो है, लेकिन उससे भी अधिक वह तात्कालिक राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन है। लेनिन से लेकर आज तक कम्युनिस्ट परंपरा रही है कि तात्कालिक जरूरत के मुताबिक मार्क्सवादी सिद्धांत की व्याख्या की जाए। सीपीएम भी निष्ठापूर्वक इस परंपरा का निर्वाह करती आई है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं कि देश के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मुस्लिम लीग सांप्रदायिक पार्टी है।

यदि किसी सांप्रदायिक पार्टी में विभाजन होता है, तो भी एक की जगह दो पार्टियों के अस्तित्व में आने का यह अर्थ नहीं कि उनमें से एक पार्टी धर्मनिरपेक्ष हो गई। लेकिन जब केरल में सीपीएम को गठबंधन बनाने के लिए समर्थन की जरूरत पड़ी, तो उसने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के साथ न सिर्फ हाथ मिलाया, बल्कि यह फतवा भी जारी कर दिया कि जहाँ इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग सांप्रदायिक है, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम लीग धर्मनिरपेक्ष है।

इसी तरह किसी समय वह अकाली दल को भी धर्मनिरपेक्ष बताया करती थी। सीपीआई ने तो बाकायदा जनसंघ के साथ मिलकर एक ही सरकार में काम किया है। वीपी सिंह की सरकार को एक ओर से भाजपा ने थामा हुआ था तो दूसरी ओर से वामपंथियों ने।

कुछ समय पहले तसलीमा नसरीन कांड ने भी साफ कर दिया था कि सीपीएम को अब उसी तरह मुस्लिम वोट बैंक नजर आने लगा है जिस तरह भाजपा को हिन्दू वोट बैंक नजर आता है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वह मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करना चाहती है। वरना मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेककर उसने तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से न निकाला होता और न ही प्रकाश करात और एमके पंधे ने इस प्रकार के आपत्तिजनक बयान दिए होते।

इस प्रसंग में एक दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश के मुस्लिम समुदाय को सद्दाम हुसैन और ओसामा बिन लादेन के समर्थन और डेनमार्क के अखबार में छपे कार्टूनों के विरोध में जुलूस निकालने और उग्र प्रदर्शन करने से तो कोई गुरेज नहीं जबकि इनमें से किसी भी मुद्दे से उनका कोई सीधा संबंध नहीं है... शायद ही किसी मुसलमान ने डेनिश अखबार में छपे कार्टून को देखा होगा... लेकिन उसे कभी मुस्लिम देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों की सुध नहीं आती। क्या कभी किसी ने सुना है कि किसी मुस्लिम संगठन ने सऊदी अरब में गैर-मुस्लिमों के धार्मिक अधिकारों के लिए कोई धरना-प्रदर्शन किया?
(लेखक डायचेवेले जर्मनी रेडियो के संवाददाता हैं।)