जाहिर है गाँधी जी का विरोध यंत्रों को लेकर नहीं था, बल्कि उस प्रवृत्ति को लेकर था जिसकी तरफ भारत बढ़ रहा था और वह प्रवृत्ति थी औद्योगिक पूँजीवाद की
पश्चिमी न्यायपालिका और चिकित्सा पद्धति का, वकीलों और डॉक्टरों का भी विरोध करते हैं। गाँधीजी ने बाद में मशीनों के बारे में अपने विचारों में कुछ परिवर्तन भी किया लेकिन आलोचकों ने गाँधीजी को उनके जीवनकाल में ही नहीं बख्शा। एक विदेशी आलोचक ने लिखा : "गाँधीजी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, इनसान की बनाई हुई एक अकुदरती-कृत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक तो उसका भी नाश करना होगा।"
एक अन्य आलोचक ने लिखा : 'नाक पर लगाया हुआ चश्मा भी आँख की मदद करने को लगाया हुआ यंत्र ही है। हल भी यंत्र है।' इस पर रामचंद्रन नामक एक व्यक्ति ने गाँधी जी से पूछा 'क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं।' गाँधी जी का उत्तर था : 'वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी भी यंत्र है।
मेरा विरोध यंत्रों से नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसको लेकर है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं।' जाहिर है गाँधी जी का विरोध यंत्रों को लेकर नहीं था, बल्कि उस प्रवृत्ति को लेकर था जिसकी तरफ भारत बढ़ रहा था और वह प्रवृत्ति थी औद्योगिक पूँजीवाद की।
गाँधी जी ने इसे ही उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद को गति देने वाला माना। बहुत समय पहले इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली ने अपने एक शोधपरक लेख में कहा था कि हिंद स्वराज्य से तीन थीम उभरती हैं जिनकी बार-बार चर्चा होती है और ये हैं उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद, औद्योगिक पूँजीवाद और तर्कसंगत भौतिकवाद।
गाँधी जी नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद खत्म हो और देश में भूरे साहबों का अंदरूनी उपनिवेशवाद शुरू हो जाए। इसी तरह वह नहीं चाहते थे कि यंत्रवाद को मानववाद से ज्यादा तरजीह मिले। इसलिए इस पुस्तक की महिमा गायी जाती है लेकिन गाँधी जैसा व्यावहारिक व्यक्ति आज होता तो अपनी कुछ स्थापनाओं में जरूर परिवर्तन करता।