शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By मनीष शर्मा

बुरी है यदि बच्चे की संगत तो

आप ही बदल सकते हो रंगत

बुरी है यदि बच्चे की संगत तो -
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आज सफला एकादशी है। इसकी कथा के अनुसार राजा महिष्मति का छोटा बेटा ल्युंक बहुत ही दुष्ट प्रवृत्ति का था। राजा ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना। एक दिन तंग आकर राजा ने बेटे को राज्य से बाहर निकाल दिया। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद भी उसने दुर्गुणों को नहीं छोड़ा।

एक बार तीन दिन की भूख से व्याकुल होकर वह एक साधु की कुटिया में चोरी के इरादे से घुस गया लेकिन उस दिन एकादशी होने के कारण उसे कुछ भी खाने को नहीं मिला। उसकी आहट से साधु की नींद जरूर खुल गई। ल्युंक की हालत पर तरस खाकर साधु ने उसे अच्छे वस्त्र दिए और मीठी बातें की। इससे उसे आत्मग्लानि हुई और उसका मन परिवर्तित हो गया।

वह वहीं रहकर साधु की खूब सेवा करने लगा। धीरे-धीरे उसके सारे दुर्गुण दूर हो गए। जब वह पूरी तरह सज्जन बन गया तो एक दिन साधु ने अपना असली रूप प्रकट कर दिया। दरअसल वे राजा महिष्मति ही थे जिन्होंने अपने पुत्र को सही रास्ते पर लाने के लिए ऐसा किया था। समय आने पर ल्युंक ने राजा बनकर राजकाज के कई आदर्श प्रस्तुत किए।
  आज सफला एकादशी है। इसकी कथा के अनुसार राजा महिष्मति का छोटा बेटा ल्युंक बहुत ही दुष्ट प्रवृत्ति का था। राजा ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना। एक दिन तंग आकर राजा ने बेटे को राज्य से बाहर निकाल दिया।      


दोस्तो, यह है संगत का असर। निश्चित ही वह राजकुमार सज्जन रहा होगा, लेकिन बुरी संगत से उसमें दुर्गुण आ गए होंगे। राजा ने इस बात को समझकर खुद ही अच्छी संगत दी और हाथ से निकल चुकी अपनी औलाद की रंगत बदल दी।

यदि आपके नौनिहाल भी ल्युंक की तरह आपको अपने हाथों से निकालते नजर आ रहे हैं तो ऐसे में हिम्मत हारने से, निराश-हताश होने से काम नहीं चलेगा। आपको भी खुद ही ऐसे प्रयास करने होंगे ताकि आपका बच्चा भी बुराइयों को छोड़कर अच्छाइयाँ अपना सके। इसके लिए डाँटने-फटकारने से काम नहीं चलेगा। यदि चलता होता तो वह तो कब का चल गया होता। रोज-रोज की डाँट-फटकार बच्चों को बेशर्म बना देती है और उन पर अपने पालकों की किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।

ऐसे बच्चों को दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि आप बच्चे की मानसिक स्थिति को समझते हुए उसके साथ अधिक से अधिक समय गुजारें। यह बात याद रखिए कि मनुष्य स्वभावगत एक सामाजिक प्राणी है। उसे किसी न किसी का साथ चाहिए ही। जब आप अपने कामकाज की उलझनों में फँसकर अपनी व्यस्तताओं के चलते उनकी तरफ ध्यान नहीं दे पाते तो बच्चे बाहर साथ ढूँढते हैं।

तब जैसा साथ उन्हें मिलता है वैसी ही बात वे सीखते जाते हैं। ऐसे में यदि शुरू में ही आप उस पर ध्यान दे देते तो शायद बुरी संगत से वह बच जाता लेकिन जब तक आप ध्यान देते हैं तब मामला नियंत्रण के बाहर हो चुका होता है।

तब आप उसे कुछ कहते हैं तो वह उसका प्रतिकार करता है। उसे आपकी बात समझ में नहीं आती। वह आपकी बातों को 'जनरेशन गेप' कहकर हवा में उड़ा देता है। आप भी सोचते हैं कि जमाना बदल रहा है। आपकी सोच पुरानी पड़ गई है और आप बच्चे को समझ नहीं पा रहे हैं। यदि ऐसी बात है तो आपको बता दें कि जमाना तो रोज ही बदल रहा है।

जनरेशन गेप की बात उस टेप की तरह है जो बार-बार बजता है। तब भी बजता था जब आप खुद बेटे थे और तब भी बजेगा, जब आपका बेटा भी बाप बन जाएगा। यदि आप समय के साथ चलने वाले हैं तो आपके लिए यह गेप वाली बात कोई मायने नहीं रखती। वैसे भी कहते हैं पीढ़ियाँ बदलती हैं सफलता की सीढ़ियाँ नहीं। यानी सफलता के लिए आवश्यक रास्ते वही रहते हैं, संस्कार वही रहते हैं, सद्गुण वही रहते हैं। ये समय के साथ न तो बदलते हैं, न ही बदले जा सकते हैं।

इसलिए इन बातों को ध्यान में रखते हुए आप अपने नौनिहाल को धैर्य के साथ सुधारने की कोशिश करेंगे तो निश्चित ही आपको सफलता मिलेगी। आपको उसे यह अहसास नहीं कराना है कि आप उसे बदल रहे हैं, तभी वह बदलेगा। इसके लिए जरूरी है कि आप उसके दोस्त बनकर उसे अपने साथ अधिक से अधिक समय तक उलझाकर रखें।

धीरे-धीरे जब वह दोस्तों की बजाय आपके साथ समय गुजारना सीख जाएगा तो फिर वह बुरी संगत और दुर्गुणों से खुद ही अपने आप को दूर कर लेगा। इस तरह आपको अपनी मेहनत का सुफल प्राप्त होगा। अच्छा, अब समझ में आया कि पापा ये क्यों कहते थे कि पहली सिगरेट मेरे साथ पीना। इस चक्कर में आज तक शुरू नहीं हो पाई।