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Written By समय ताम्रकर

पटियाला हाउस : फिल्म समीक्षा

Patiala House Movie Review | पटियाला हाउस : फिल्म समीक्षा
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निर्माता : भूषण कुमार, मुकेश तलरेजा, किशन कुमार, ट्विंकल खन्ना, जोएब स्प्रिंगवाला
निर्देशक : निखिल आडवाणी
संगीत : शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार : अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिम्पल कपा‍ड़िया, प्रेम चोपड़ा, टीनू आनंद
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 28 मिनट * 17 रील
रेटिंग : 2/5

इस समय सारे निर्माता-निर्देशक कोशिश कर रहे हैं कि उनकी फिल्म की कहानी वास्तविकता के निकट हो क्योंकि दर्शक इस तरह की फिल्में देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं, लेकिन ‘पटियाला हाउस’ एक ऐसी कहानी पर बनी फिल्म है, जिस पर यकीन करना मुश्किल है।

स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि फिल्म पूरी तरह से बाँधकर नहीं रख पाती। निश्चित रूप से फिल्म में कुछ ‘टचिंग मोमेंट्स’ हैं, कुछ बेहतरीन दृश्य हैं, लेकिन ठोस कहानी के अभाव में ये असरदायक साबित नहीं हो पाते।

पटियाला हाउस एक ऐसे परिवार की कहानी है जो पी‍ढ़ियों से साउथहॉल लंदन में रह रहा है। इस परिवार के मुखिया हैं बाबूजी (ऋषि कपूर), जिनके कुछ कानून-कायदे हैं जिसका पालन करना परिवार के हर सदस्य के लिए अनिवार्य है, भले ही आप सहमत हों या नहीं।

बाबूजी को ब्रिटिश और उनकी हर चीज से नफरत है। इसका कारण है वर्षों पहले की एक घटना, जिसमें बाबूजी के आदर्श मि.सैनी की हत्या कर दी गई थी। बाबूजी के परिवार की नई पीढ़ी अपने सपनों को पूरा करना चाहती हैं, लेकिन बाबूजी के प्रति प्यार और सम्मान की खातिर उन्हें सपनों को एक तरफ रखना पड़ता है।

बाबूजी का बेटा 17 वर्ष का परघट सिंह उर्फ गट्टू (अक्षय कुमार) एक उभरता हुआ तेज गेंदबाज था, इंग्लैंड की तरफ से क्रिकेट खेल सकता था, लेकिन बाबूजी ने अँग्रेजों की टीम से खेलने से मना कर दिया।

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17 वर्ष बाद 34 वर्ष के गट्टू को एक बार फिर इंग्लैंड की तरफ से खेलने का न्यौता मिलता है और इस बार वह मान जाता है। बाबूजी को छोड़ परिवार का हर सदस्य उसे सहयोग करता है और बाबूजी से इस बात को छिपाया जाता है कि उनका बेटा अँग्रेजों की टीम से खेल रहा है। आखिर पोल खुल जाती है और अंत में बाबूजी को मानना ही था।

इस कहानी में ढेर सारे अगर-मगर हैं। पहली बात तो ये कि बाबूजी को अगर अँग्रेजों से नफरत है तो वे इंग्लैंड में क्यों रह रहे हैं? फौरन भारत उन्हें लौट आना था। गट्टू को इंग्लैंड की तरफ से खेलने से रोकना तो फिर भी समझ में आता है, लेकिन उसके भाई, बहन, भतीजों का क्या दोष? कोई शेफ या फैशन डिजाइनर बनना चाह रहा है तो उसे क्यों रोका जा रहा है?

क्या आप यकीन कर सकते हैं कि 17 वर्ष से जिस इंसान ने क्लब स्तर पर भी क्रिकेट नहीं खेला हो, उसका इंग्लैंड की राष्ट्रीय टीम में महज एक ओवर फेंकने के बाद चयन हो जाता है। डेविड गॉवर, ग्राहम गूच, जॉन एम्बुरी जैसे नामी खिलाड़ी चयनकर्ता के रूप में इतने बेवकूफ तो नहीं हैं।

बाबूजी से यह बात छिपाना कि उनका बेटा इंग्लैंड टीम से क्रिकेट खेल रहा है, शानदार प्रदर्शन कर हीरो बन गया है, नामुमकिन-सा लगता है। निर्देशक और लेखक ने इस बात को हास्य में लपेट कर पेश किया है ताकि उनकी कमजोरी छिप जाए, लेकिन बात नहीं बनी, भले ही गट्टू ने अपना नाम बदलकर काली रख लिया हो।

गट्टू को परिवार के अन्य सदस्य खलनायक मानते हैं क्योंकि गट्टू ने अपनी पिता की बात सुनी इस वजह से उन्हें भी सुनना पड़ रही है। लंबे-चौड़े परिवार में क्या किसी में हिम्मत नहीं है कि वह बाबूजी से अपनी चाहत के बारे में बात कर सके। स्क्रीनप्ले राइटर्स निखिल आडवाणी और अन्विता दत्ता ने गट्टू की तरफ सहानुभूति दिखाने के लिए नाहक ही उसे परिवार के अन्य सदस्यों की नजर में दोषी ठहराने की कोशिश की।

कहानी की पृष्ठभूमि में ढेर सारे रिश्तेदार और एक पंजाबी शादी के जरिये माहौल हल्का करने की असफल कोशिश की गई है। रोमांस भी फिल्म से नदारद है।

निर्देशक के रूप में निखिल आडवाणी अपनी पिछली फिल्मों (सलाम-ए-इश्क और चाँदनी चौक टू चाइना) से बेहतर हैं। कुछ दृश्यों को उन्होंने अच्छा फिल्माया, लेकिन कहानी की कमियों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया।

अक्षय कुमार ने गंभीरता के साथ अपना काम किया है, लेकिन एक खिलाड़ी की भूमिका में वे मिसफिट नजर आते हैं। इस रोल के लिए ऐसे हीरो की आवश्यकता थी, जिसकी उम्र 30 वर्ष से कम हो। पंजाबी कुड़ी का किरदार निभाना अनुष्का शर्मा के लिए बेहद आसान है और यहाँ भी वे अपनी छाप छोड़ती हैं।

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ऋषि कपूर ने बाबूजी के रूप में खूब रौब जमाने की कोशिश की है, लेकिन उनका रोल ऐसा लिखा गया है कि वे प्रभावी नजर नहीं आए। डिम्पल कपाड़िया ने पता नहीं इतना महत्वहीन रोल क्यों किया?

एंड्रयू साइमंड्स, साइमन कैटिच, पोलार्ड, कामरान अकमल जैसे खिलाड़ी भी इस फिल्म में नजर आते हैं। शंकर-अहसान-लॉय ने एक गीत को छोड़ दिया जाए तो पंजाबी धुनों के नाम पर सिर्फ शोर पैदा किया है।

कुल मिलाकर ‘पटियाला हाउस’ तभी पसंद आ सकती है, जब स्क्रीनप्ले की कमियों को नजरअंदाज किया जाए।