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Written By स्मृति आदित्य

नूतन वर्ष शुभ हो

संकल्पों की जीत हो

नूतन वर्ष शुभ हो -
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फिर एक बार सलोना अबोध वर्ष अंगड़ाई ले रहा है। आशाओं की मासूम किलकारियाँ गूँज उठी हैं। शुभ संकल्पों की मीठी खनकती हँसी हर वर्ष की तरह साल 2009 के सुशोभन चेहरे पर भी खिल उठ‍ी है। मानव स्वभाव ही ऐसा है, आता हुआ, नया-नवेला, ताजगी और उत्साह से परिपूर्ण अनजाना हमेशा सुहाता है, आकर्षित करता है। और जाता हुआ, देखा-समझा, जाँचा-परखा, पुराना उदासीनता को जन्म देता है।

उदासीनता न सही पर जो जिज्ञासा और मोह नए के प्रति होता है, पुराने के साथ नहीं रह पाता। बीता वर्ष चाहे कितनी ही खूबसूरत सौगातें सौंप जाए, लेकिन लोभी मन कभी संतुष्ट नहीं होता। आने वाले वर्ष के लिए कहीं अधिक खूबसूरती के सपने अनजाने ही शहदीया आँखों में सजने लगते हैं।

कितना सुखद लगता है नूतन वर्ष को निहारना, उत्सुकतावश ताकना! ह्रदय में तरंगित होता है यह भोला प्रश्न- 'क्या लाए हो मेरे लिए?'
और ह्रदय में ही काँपता-कुनमुनाता एक घबराया प्रश्न- 'पता नहीं क्या लाए हों मेरे लिए?' उत्सुकता एक ही है पर स्वरूप भिन्न है। एक उत्साह से भरपूर कि क्या लाए हो मेरे लिए और दूसरा आशंका में डूबा ‍‍कि पता नहीं.....?

जाते हुए साल ने जो जहरीले दंश दिए हैं उससे सभी आहत हुए हैं। मुंबई की अनहोनी के बाद हर भारतीय मन का आशंका से ग्रस्त होना स्वाभाविक है।

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पर मानव कितनी ही विषम परिस्थितियों में रहे, उसका भोलापन अमिट है। इसीलिए आँधी और अंधकार से घिरी विचार श्रृंखला के बीच भी दिल की बगिया के कहीं किसी कोने में विश्वास की एक गुलाबी, नाजुक कोंपल फूट ही पड़ती है।

कौन जाने इस नए वर्ष में आकाँक्षा पूरी हो जाए। नया जॉब मिल जाए। शायद बिटिया दुल्हन बन जाए। एक अदद आशियाना खड़ा हो जाए। बच्चों के परीक्षा परिणाम अपेक्षानुरूप आ जाएँ। कोई हमसफर मिल जाए। प्रमोशन हो जाए। या फिर कोई नन्हा, गुदगुदा 'खिलौना' मुस्करा उठे। कितनी-कितनी तमन्नाएँ, कितने-कितने अरमान! हर दिल की ख्वाहिश कि नए बरस में कोई ऐसी खुशी मिल जाए जिसे बरसों से बस दिल में ही सँजोकर रखा है। कभी व्यक्त नहीं किया है।

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कितने भावपूर्ण, मोहक, मधुर और सुवासित सपने हैं! नया वर्ष इसीलिए तो आता है, अपने अंतर में निहित सुंदर सपने, आकाँक्षाएँ और कल्पनाएँ पुन: याद करने के लिए। उन्हें साकार करने के लिए मन में एक नवीन ऊर्जा का विस्फोट करने के लिए।

बीते वर्ष में सांसारिकता के न जाने कितने कसैले घूँट पीए होंगे। किसी प्रियजन को हमेशा-हमेशा के लिए बिछुड़ते देखा होगा, कभी विश्वास चटके होंगे, कभी आकर्षक भ्रम चकनाचूर हुए होंगे। कभी संबंधों ने दरककर दम तोड़ा होगा। कभी अपनों के आवरण में लिपटे परायों का परिचय हुआ होगा। ऐसे ही उलझे हुए ताने-बाने में दिल के दरवाजे पर हताशा के हथौड़े ने दस्तक दी होगी। 'क्यों? क्यों होता है ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ? फिर लगा होगा यह वर्ष ही मनहूस था। शायद नया वर्ष सुकून से गुजरे।

किन्तु वर्ष को मनहूस कहा जाना कहाँ तक उचित है? जीवन के समंदर में उतरे हैं तो तूफान के थपेड़े तो सहने ही होंगे। मचलती लहरों के तड़ातड़ पड़ते ये थपेड़े सिर्फ आप पर ही नहीं पड़ते, बल्कि हर उस शख्स को पड़ते हैं जो समंदर में आपकी ही तरह किनारा पकड़ने की जद्दोजहद में है। यह भी उतना ही सच है जिसने लहरों के उतार-चढ़ाव और ज्वार-भाटे को समझ लिया और उसके अनुरूप अपनी रणनीति बनाई उसी ने उपलब्धियों के चमकते धवल मोती को जीवन के महासिंधु से समेटा है।

विडंबना देखिए कि हमें अपने निजी दुःखों का हिसाब स्पष्टत: याद रहता है किन्तु राष्ट्रीय क्षति के तमाम हिसाबों के लिए समाचार पत्र सहेजना-संभालना पड़ता है। साल 2008 में एक काला दिन हम सबको स्तब्ध कर गया। मुंबई की सैकड़ों चहकती आवाजें हमारे देखते ही देखते चीखों में तब्दील हो गईं। हमने मौत का तांडव नंगी आँखों से देखा। इसी साल हमने सत्तालोलुप नेताओं की बेशर्म जुबान से झरे घटिया बयान सुने। अब भला आप ही बताएँ वर्ष मनहूस कहाँ हुआ? मनहूसियत तो इस राजनीति पर छाई है।

वर्ष, महीने, दिन यह सब तो हमारे विद्वान पूर्वजों ने सुनिश्चित किए हैं। समय को बाँधा नहीं जा सकता इसलिए उसका अनुमापन किया गया। इस सबके बीच जो घटित होना नियति में लिखा है, वह घटित हुआ। इसमें वर्ष का क्या दोष? होनी तो होकर रहती है। ययाति (उपन्यास) में विष्णु सखाराम खांडेकर ने लिखा है कि जिन्दगी होती ही ऐसी है जितनी जी उतनी तकलीफदेह, जितनी जी रहे हैं उतनी उलझनपूर्ण और जितनी जीना शेष है उतनी रहस्यपूर्ण।

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नया वर्ष आता है हमसे कहने कि हम झाँकें अपने भीतर पूरी गहराई से, पूरी शिद्दत से और देखें कि क्या रह गया है हमारे अंदर जो अधूरा है, अपूर्ण है, अवरुद्ध है।

हम न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने देश के लिए भी सोचें कि बीते साल में सुरक्षा, संकल्प और साहस की दृष्टि से हम कहाँ, किन-किन जगहों पर कमजोर रह गए हैं। नए साल में लड़ें हम अपनी ही कमजोरियों से। संकट और चुनौतियाँ हमारी आशा और विश्वास से बढ़कर नहीं है। इनके आकार बड़े हो सकते हैं, लेकिन गहराई तो विश्वास एवं आशा में ही होती है। जीत हमेशा गहराई की होती है। नूतन वर्ष में गहरे शुभ संकल्पों के साथ राष्ट्रकल्याण का सतरंगी इन्द्रधनुष रचें, यही कामना है!