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Written By स्मृति आदित्य

'टू द लास्ट बुलैट' का लहूलुहान सच

शहीद काम्टे की पत्नी विनिता की पुस्तक ने खोले राज

26/11 Attack | ''टू द लास्ट बुलैट'' का लहूलुहान सच
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'टू द लास्ट बुलैट' यह नाम है 'पीड़ा' के उस दस्तावेज का जिसे शहीद अशोक काम्टे की पत्नी विनिता काम्टे ने कई मर्मांतक अनुभवों से गुजर कर लिखा है। कितनी बार थरथराई होगी वह लेखनी अपने पति के अंतिम क्षणों को कागज पर उतारने से पहले, यह वेदना हममें से बस वही महसूस कर सकता है जिसने किसी अपने को यूँ अचानक खोया है। शहीद की पत्नी कमजोर नहीं होती, वह जानती है कि उसका सुहाग हजारों सुहाग को बचाने की खातिर बना है लेकिन दर्द तब हद से गुजर जाता है जब 'व्यवस्था' कही जाने वाली 'प्रशासनिक अव्यवस्था' उस शहादत की लाज नहीं रख पाती, शहादत का मान नहीं रख पाती।

मुंबई पर हुए आक्रमण ने जितना हमें स्तब्ध किया उससे कहीं ज्यादा रूला रहे हैं वे तथ्य जो एक वर्ष बीत जाने के बाद यूँ परत दर परत खुल कर सामने आ रहे हैं। ऐसे तथ्य जो शर्मनाक भी हैं और दर्दनाक भी।

टू द लास्ट बुलैट : परिचय
'टू द लास्ट बुलैट' मुंबई हमले में शहीद हुए अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक काम्टे की पत्नी विनिता काम्टे द्वारा लिखित पुस्तक है। जिसे मंगलवार, 24 नवंबर को 'उसी' होटल ताज में पूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर जुलियो रिबेरो और सामाजिक कार्यकर्ता मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त अरूणा राय द्वारा लोकार्पित किया गया, जहाँ आतंकवादियों ने साठ घंटे तक मौत का विभत्स तांडव रचा था। इस पुस्तक की सह-लेखिका वरिष्ठ पत्रकार विनिता देशमुख है।

क्या है इस पुस्तक में?
इस पुस्तक में, शहीद अशोक काम्टे की पत्नी ने उन सारी प्रशासनिक शिथिलताओं पर प्रश्न खड़े किए हैं जिनका शिकार उनके पति अशोक काम्टे और आला अधिकारी हेमंत करकरे तथा विजय सालस्कर हुए। इस पुस्तक में विनिता ने अपने पति की मौत के लिए समूची पुलिस व्यवस्था को आरोपों के कटघरे में खड़ा किया है। इसमें अशोक काम्टे के आरंभिक से लेकर अंतिम गोली लगने तक की जीवन यात्रा को शब्दबद्ध किया गया है।

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शर्म भी शर्मिंदा है 'सच' जानक
'टू द लास्ट बुलैट' ने ऐसे-ऐसे सनसनीखेज खुलासे किए है जिसे जानने के बाद शर्म शब्द भी शायद शर्मिंदा हो जाए। पुस्तक का पहला आरोप चौंकाने वाला है कि शहीदों को निम्नस्तरीय बुलैटप्रूफ जैकेट दिए गए थे और शहादत के एक वर्ष बाद तक वे जैकेट बरामद नहीं हुए। दूसरा आरोप- अपराध ब्यूरो के संयुक्त कमिश्नर राकेश मारिया ने कमिश्नर हसन गफूर को उनके पति के लोकेशन की गलत जानकारी दी। तीसरा आरोप- उनके पति अशोक काम्टे व अन्य अधिकारी हेमंत करकरे और विजय सालस्कर तीनों को ताज होटल तथा कामा अस्पताल में प्रवेश से पूर्व पुख्ता जानकारी नहीं दी गई थी। वरना आज वे सलामत होते। चौथा आरोप- यह सबसे दारूण और दुखद है कि उनके पति काम्टे तथा अधिकारी सालस्कर व करकरे घायल अवस्था में 40 मिनट तक तड़पते रहे मगर पुलिस की एक के बाद एक तीन गाड़‍ियाँ उन्हें छटपटाता छोड़ कर आगे बढ़ गई। इस लापरवाही के लिए सरकार द्वारा अब तक किसी से जवाब-तलब क्यों नहीं किया गया?

विनिता को पुस्तक क्यों लिखना पड़ी?
विनिता कहती है मुझे और अन्य अधिकारियों की पत्नी को यह जानने का पूरा नैतिक अधिकार है कि हमारे पति किन परिस्थितियों में शहीद हुए। लेकिन जब मैंने आधिकारिक रूप से जानकारी चाही तो यह कह कर मना कर दिया गया कि ऐसा करने से जाँच प्रक्रिया प्रभावित होगी। मैं जानना चाहती थी कि 26 नवंबर के दिन मेरे पति के साथ क्या-क्या हुआ। लगातार जानकारी माँगने के बाद भी जब नहीं मिली तो आखिरकार मुझे सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करना पड़ा। एक वर्ष बाद मुझे सूचना मिल सकी तब जाकर इस पुस्तक ने आकार लिया।

विनिता की पीड़ा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता जब उन्होंने कहा कि ' मुझे दुख है इस अनुभव से कि व्यवस्था लोगों के बलिदान का सम्मान नहीं करती। उनके सवालों का जवाब नहीं देना चाहती और एक शहीद की पत्नी को सूचना के अधिकार के तहत जानकारी हासिल करनी पड़ी।

इससे पूर्व हेमंत करकरे की पत्नी भी यह माँग करती रहीं कि उन्हें उनके पति की बुलैटप्रूफ जैकेट दिखाई जाए। पुलिस का कहना था कि वो उनको नहीं मिल रही। इस किताब से पूर्व जानकारी के लिए अपने पति के साथियों से ही विनिता को अत्यंत खेदजनक व्यवहार देखना पड़ा। विनिता के अनुसार,जब आप व्यवस्था से पारदर्शिता की माँग करते हैं, व्यवस्था गोपनीयता की दीवार के पीछे खड़ी हो जाती है। चाहे आप उस व्यवस्था के हिस्से ही क्यों न रहे हों। सहयोग के नारे बुलंद करने वाले यही लोग असहयोग की कड़वी बोली बोलने लगते हैं जब सवालों के हथियार उनके विरूद्ध बरसाए जाए।

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शिकार और भी हैं
शहीद काम्टे की पत्नी विनिता यह साहस कर सकी कि तमाम अव्यवस्थाओं से जूझते हुए भी वह इस सच को सामने ला सकी। दर्द के कड़वे घूँट निगलते हुए मन के उद्दाम क्रोध और जब्त आँसू को लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकीं। किन्तु अव्यवस्था के शिकार कितने ही शह‍ीदों का कोई रहनुमा नहीं। मेजर संदीप उन्नीकृष्णन सेना के उच्चस्तरीय हथियार MP-5 से लैस थे। लेकिन हादसे के एक साल बाद तक मेजर की ना MP-5 बरामद हुई है ना ही मोबाईल।

दूसरी तरफ प्रधान समिति की रिपोर्ट में दर्ज सच कितने सच हैं और कितने सच के आवरण में लिपटे छल हैं इसकी जाँच कौन सी समिति करेगी? विनिता की तरह ही दनदनाते सवालों की मिसाइल शहीद करकरे और सालस्कर की पत्नी के मन में भी चल रही है, जिन्हें लेकर वे पिछले दिनों सोनिया गाँधी के पास पहुँची थीं।

लेकिन सवाल यह है कि जो परिवार अपनी बात को यूँ सार्वजनिक रूप से रखना नहीं जानते वे कहाँ और किसके पास जाएँ? ना जाने कितने शहीदों के परिवारों को उनके मुआवजे नहीं मिले हैं और ना जाने कितने शहीदों की आत्मा अपने परिजनों को भटकते देख तड़प रही है। कहीं-कहीं तो परिजन अफसोस जाहिर कर रहे हैं कि अपने बेटों को उन्होंने शहीद क्यों होने दिया।

क्या आपको नहीं लगता इस असंतोष, पीड़ा और क्रोध के जिम्मेदार हम हैं। हम, जिनकी हिफाजत के लिए हमारे वे अनमोल प्रशिक्षित अधिकारी मिट्टी के खिलौनों की तरह बिखर गए और हम देखते रह गए। हम अब भी देख ही रहे हैं जब उनके परिवार व्यवस्था का शिकार होते हुए टूटकर बिखर रहे हैं। हमारी कृतघ्नता का क्या कोई इलाज है या ये भी आतंकवाद की तरह लाइलाज है?